माँ पर कविता

माँ पर कविता-1

ओ मेरी प्यारी माँ,
सारे जग से न्यारी माँ.

मेरी माँ प्यारी माँ,
सुन लो मेरी वाणी माँ.

तुमने मुझको जन्म दिया,
मुझ पर इतना उपकार किया.

धन्य हुई मैं मेरी माँ,
ओ मेरी प्यारी माँ.

अच्छे बुरे में फर्क  बताया,
तुमने अपना कर्तव्य निभाया.

अच्छी बेटी बनूंगी माँ,
ओ मेरी प्यारी माँ.

करूंगी तेरा मैं गुणगान,
करूंगी तेरा मैं सम्मान.

शब्द भी पड़ गए थोड़े तेरे गुणगान के लिए माँ,
ओ मेरी प्यारी माँ.

माँ पर कविता हिंदी में short-2

माँ पर कविता

अंधियारी रातों में मुझको
थपकी देकर कभी सुलाती
कभी प्यार से मुझे चूमती
कभी डाँटकर पास बुलाती

कभी आँख के आँसू मेरे
आँचल से पोंछा करती वो
सपनों के झूलों में अक्सर
धीरे-धीरे मुझे झुलाती

सब दुनिया से रूठ रपटकर
जब मैं बेमन से सो जाता
हौले से वो चादर खींचे
अपने सीने मुझे लगाती

माँ पर कविता हिंदी में short-3

जन्म दात्री
ममता की पवित्र मूर्ति
रक्त कणो से अभिसिंचित कर
नव पुष्प खिलाती

स्नेह निर्झर झरता
माँ की मृदु लोरी से
हर पल अंक से चिपटाए
उर्जा भरती प्राणो में
विकसित होती पंखुडिया
ममता की छावो में

सब कुछ न्यौछावर
उस ममता की वेदी पर
जिसके
आँचल की साया में
हर सुख का सागर!

माँ पर कविता-4

बहुत याद आती है माँ
जब भी होती थी मैं परेशान
रात रात भर जग कर
तुम्हारा ये कहना कि
कुछ नहीं… सब ठीक हो जाएगा ।
याद आता है…. मेरे सफल होने पर
तेरा दौड़ कर खुशी से गले लगाना ।
याद आता है, माँ तेरा शिक्षक बनकर
नई-नई बातें सिखाना
अपना अनोखा ज्ञान देना ।
याद आता है माँ
कभी दोस्त बन कर
हँसी मजाक कर
मेरी खामोशी को समझ लेना ।
याद आता है माँ
कभी गुस्से से डाँट कर
चुपके से पुकारना
फिर सिर पर अपना
स्नेह भरा हाथ फेरना ।
याद आता है माँ
बहुत अकेली हूँ
दुनिया की भीड़ में
फिर से अपना
ममता का साया दे दो माँ
तुम्हारा स्नेह भरा प्रेम
बहुत याद आता है माँ

माँ पर कविता हिंदी में-5

कभी जो गुस्से में आकर मुझे डांट देती
जो रोने लगूं में मुझे वो चुपाती
जो में रूठ जाऊं मुझे वो मनाती,

मेरे कपड़े वो धोती मेरा खाना बनाती
जो न खाऊं में मुझे अपने हाथों से खिलाती
जो सोने चलूँ में मुझे लोरी सुनाती,

वो सबको रुलाती वो सबको हंसाती
वो दुआओं से अपनी बिगड़ी किस्मत बनाती
वो बदले में किसी से कभी कुछ न चाहती,

जब बुज़ुर्गी में उसके दिन ढलने लगते
हम खुदगर्ज़ चेहरा अपना बदलने लगते
ऐश-ओ-इशरत में अपनी उसको भूलने लगते

दिल से उसके फिर भी सदा दुआएं निकलती
खुशनसीब हैं वो लोग जिनके पास माँ है।

माँ पर कविता-6

क्या सूरत तूने पाई है
क्या मूरत तूने पाई है
ऐ मां!
तू कौन सी दुनिया से उतर कर आई है

कौन सा दिल है तेरे सीने में
तेरी भी तो कुछ ख्वाहिश है,
लेकिन अपने बच्चों के लिए
तूने उन्हें भुलाई है।

सेहती जाती तू कितनी तकलीफे
फिर भी किसी से कुछ ना कहती
देखकर अपने बच्चों की मुस्कान
अपने दुख दर्द में भी तू मुस्कुराई है
ऐ मां!
तू कौन सी दुनिया से उतर कर आई है।

माँ पर कविता-7

poem on Mother

कैसी है ये मां की ममता
खुद की नींदें त्याग कर
रातों को है हमें सुलाती
हो जाता जब मैं बीमार
रात भर सिर में हाथ घूमती
खुद को भूखा रखती है
पहले हमको खाना खिलाती
में हूं उसके होठों की मुस्कान
मुझे देख कर खुश हो जाती
उसके सीने में बस मैं हूं बस्ता
कैसी है यह मां की ममता

माँ पर कविता हिंदी में-8

बचपन में घंटों माँ को निहारा करती थी

मुझे वह बेहद सुंदर लगती थी

उसके हाथ कोमल गुलाबी फूलों की तरह थे

पाँव ख़रगोश के पाँव जैसे

उसकी आँखें सदा सपनों से सराबोर दिखतीं

उसके लंबे काले बाल हर पल उलझाए रखते मुझे

याद है सबसे ज़्यादा मैं उसके बालों से ही खेला करती थी

उसे गूँथती फिर खोलती थी

जब माँ नहा-धोकर तैयार होती

साड़ी बाँधती

मेरे लिए वह विश्व का सुंदरतम दृश्य होता

जिसके रंगों और ख़ुशबुओं में मैं यूँ खो जाती

जैसे कोई एलिस आश्चर्यलोक में

जब मैं थोड़ी बड़ी हुई

मुझे अपनी बड़ी बहन दुनिया की सबसे सुंदर

लड़की लगने लगी

उसकी लगभग सोने जैसी देह

अपनी दमक से संसार को भरती

उसे भी मैं घंटों देखती जब वह तैयार होती

नहा-धोकर लगभग माँ की तरह ही

अपने लंबे बालों को सुखाती सँवारती बाँधती

उसकी आँखें माँ की आँखों से भी ज़्यादा

स्वप्निल दिखतीं

अब मुझे अपनी बेटियाँ इतनी सुंदर लगती हैं

कि मैं उनके पाँवों को चूमती रहती हूँ

मन ही मन ख़ुश होती हूँ

कि एक स्त्री हूँ

और घिरी हूँ इतने सौंदर्य से।

स्रोत :

पुस्तक : नींद थी और रात थी (पृष्ठ 75)

रचनाकार : सविता सिंह

प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन

संस्करण : 2005

माँ पर कविता-9

हर शाम मेरी माँ बहुत अच्छे-से सजती है

महज़ एक पुरानी क्रीम, चुटकी-भर टैल्कम पाउडर की मदद से

पीले रंग की एक साड़ी पहन उस जगह बैठती है

जहाँ किताबें पढ़ते हैं पिता मूर्तियों की तरह तल्लीन

अपनी मद्धम आवाज़ में वह कुछ कहती है

दिन-ब-दिन बहरे होते पिता नहीं सुनते

माँ बुदबुदाती है, जब कान थे, तब भी नहीं सुना,

अब क्या सुनेंगे, पकल नींबुओं जैसी इस उम्र में

उनका ध्यान खींचने के लिए चोरी से

स्टील का एक गिलास गिरा देती है वह टेबल से

सिर उठा देखते हैं पिता, उनकी आँखें चमक जाती हैं

आधी सदी बीत चुकी है शाम के इस कारोबार में

पीला, ऊर्जा सोहाग का रंग है, तुम पर बहुत फबता है

कहते हैं वह, अपनी सुनहरी दलीलों की ओट में मुस्कुराते

जबकि मैं जानता हूँ, जिन जगहों से आए हैं पिता

वहाँ दूर-दूर तक फैले होते थे सरसों के पीले खेत

जब आँचल लहराती है मेरी माँ, लहरों से भर जाता है

पीले रंग का एक समुद्र : शाम की वह सूरजमुखी शांति

मेरी माँ ने ताउम्र महज़ पीली साड़ियाँ पहनीं

ताकि हर शाम अपने बचपन में लौट सकें मेरे पिता

स्रोत :रचनाकार : गीत चतुर्वेदी

प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

 

माँ पर कविता-10

अपनी मां की खुशियों के लिए
मैं कुछ भी कर सकता हूं
अपने हिस्से की सारी खुशियों को
उसके क़दमों में रख सकता हूं
सबकुछ करके देखा है मैंने
उसके बगैर मुझे कहीं सुख नहीं है
मेरी मां से बढ़ के मेरे लिए
अब और कुछ भी नहीं है

जब तक उसकी छाँव में था
मेरे गमों को वो समेट लेती थी
मैं रोटी अगर एक मांगता था
तो वो एक ज्यादा दे देती थी
मैंने ढूंढा चारों दिशाओ में
कोई उसके जैसा नहीं है
मेरी मां से बढ़ के मेरे लिए
अब और कुछ भी नहीं है

जब कभी भी चोट लगती है
सबसे पहले उसी का खयाल आता है
किसी को उसकी मां के साथ देखता हूं
तो मुझे मेरा बचपन याद आ जाता है
उसकी जगह कोई और ले ले
कोई मेरे इतना करीब नहीं है
मेरे मां से बढ़ के मेरे लिए
अब और कुछ भी नहीं है

प्यार उसका तब समझ आया
जब उसके बगैर कुछ दिन गुजारा है
किसी से मुझे अब कोई उम्मीद नहीं है
मेरे जीने का वही एक आख़री सहारा है
उससे मिलने भी नहीं जा पाता
जबकि वो ज्यादा दूर नहीं है
मेरी मां से बढ़ के मेरे लिए
अब और कुछ भी नहीं है

 

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